गुरू अमर दास जी सिख पंथ के तीसरे गुरु तथा एक महान प्रचारक थे। जिन्होंने गुरू नानक जी महाराज के जीवन दर्शन को व उनके द्वारा स्थापित धार्मिक विचाराधारा को आगे बढाया।
गुरु अमरदास जी परिचय
गुरु अमर दास जी सिक्ख पंथ के एक महान् प्रचारक थे। जिन्होंने गुरु नानक जी महाराज के जीवन दर्शन को व उनके द्वारा स्थापित धार्मिक विचाराधारा को आगे बढाया। तृतीय नानक' गुरु अमर दास जी का जन्म 5 अप्रैल 1479 अमृतसर के बसरका गाँव में हुआ था। उनके पिता तेज भान भल्ला जी एवं माता बख्त कौर जी एक सनातनी हिन्दू थे। गुरु अमर दास जी का विवाह माता मंसा देवी जी से हुआ था। अमरदास की चार संतानें थी।जिनमें दो पुत्रिायां- बीबी दानी जी एवं बीबी भानी जी थी। बीबी भानी जी का विवाह गुरू रामदास साहिब जी से हुआ था। उनके दो पुत्रा- मोहन जी एवं मोहरी जी थे।
श्री गुरु अमर दास जी - गुरु गद्दी मिलना
श्री गुरु अंगद देव जी आपकी सेवा से बहुत खुश हुए| उन्होंने खुश होकर आपको एक अंगोछा दिया| आपने गुरु जी का इसे प्रसाद समझकर अपने सिर पर बांध लिया| आप तन करके गुरु जी की सेवा करते और मन करके गुरु जी का ध्यान करते| गुरु जी आपकी सेवा पर खुश होते रहे और हर साल अंगोछा बक्शते रहे और आप पहले की तरह सिर पर बांधते रहे| इस प्रकार जब ग्यारह साल बीत गए तो इन अंगोछो का बोझ सा बन गया| आपजी का शरीर पतला और छोटे कद का था जो वृद्ध अवस्था के कारण निर्बल हो चुका था|
एक दिन अमरदास जी गुरु जी के स्नान के लिए पानी की गागर सिर पर उठाकर प्रातःकाल आ रहे थे कि रास्ते में एक जुलाहे कि खड्डी के खूंटे से आपको चोट लगी जिससे आप खड्डी में गिर गये| गिरने कि आवाज़ सुनकर जुलाहे ने जुलाही से पुछा कि बाहर कौन है? जुलाही ने कहा इस समय और कौन हो सकता है, अमरू घरहीन ही होगा, जो रातदिन समधियों का पानी ढ़ोता फिरता है| जुलाही की यह बात सुनकर अमरदास जी ने कहा कमलीये! में घरहीन नहीं, मैं गुरु वाला हूँ| तू पागल है जो इस तरह कह रही हो|
उधर इनके वचनों से जुलाही पागलों की तरह बुख्लाने लगी| गुरु अंगद देव जी ने दोनों को अपने पास बुलाया और पूछा प्रातःकाल क्या बात हुई थी सच सच बताना| जुलाहे ने सारी बात सच सच गुरु जी के आगे रख दी कि अमरदास जी के वचन से ही मेरी पत्नी पागल हुई है| आप किरपा करके हमें क्षमा करें और इसे अरोग कर दे नही तो मेरा घर बर्बाद हो जायेगा|
जुलाहे की बात सुनकर गुरु जी ने कहा श्री अमर दास जी बेघरों के लिए घर, निमाणियों का माण हैं| निओटिओं की ओट हैं, निधरिओं की धिर हैं| निर आश्रितों का आश्रय हैं आदि बारह वरदान देकर गुरु जी ने आपको अपने गले से लगा लिया और वचन किया कि आप मेरा ही रूप हो गये हो| इसके पश्चात गुरु अंगद देव जी ने अपनी कृपा दृष्टि से जुलाही की तरफ देखा और उसे अरोग कर दिया| इस प्रकार वे दोनों गुरु जी की उपमा गाते हुए घर की ओर चल दिए|
इसके पश्चात गुरु जी ने आपके सिर से ग्यारह सालों के ऊपर नीचे बंधे हुए अंगोछो की गठरी उतारकर और सिक्खों को आज्ञा की कि इनको अच्छी तरह से स्नान कराकर नए कपड़े पहनाओ| आज से यह हमारा रूप ही हैं| हमारे बाद गुरु नानक देव जी की गद्दी पर यही सुशोभित होंगे|
गुरु जी ने अपना अन्तिम समय जानकर संगत को प्रगट कर दिया कि अब अपना शरीर त्यागना चाहते हैं| आपके यह वचन सुनकर आस पास की संगत इक्कठी हो गई और खडूर साहिब अन्तिम दर्शनों के लिए पहुँच गई| श्री गुरु अंगद देव जी ने इसके पश्चात एक सेवादार को भेजकर श्री अमर दास जी को खडूर साहिब बुला लिया|
श्री अमर दास जी के आने पर गुरु जी ने सेवादारो को आज्ञा दी कि इनक्को स्नान कराओ और नए वस्त्र पहनाकर हमरे पास ले आओ| हमारे दोनों सुपुत्रो और संगत को भी बुला लाओ| इस तरह जब दीवान सज गया तो गुरु जी ने श्री अमर दास जी को सम्बोधित करके कहा - हे प्यारे पुरुष श्री अमर दास जी! हमे अकालपुरुख का बुलावा आ गया है| हमने अपना शरीर त्याग कर बाबा जी के चरणों में जल्दी ही जा विराजना है| आपने गुरु नानक जी की चलाई हुई मर्यादा को कायम रखना है| यह वचन कहकर आप जी ने चेत्र सुदी 4 संवत 1608 वाले दिन पांच पैसे और नारियल श्री अमर दास जी के आगे रखकर माथा टेक दिया और बाबा बुड्डा जी की आज्ञा अनुसार आप जी के मस्तक पर गुरुगद्दी का तिलक लगा दिया| इसके पश्चात गुरु जी ने तीन परिक्रमा की और श्री अमर दास जी को अपने सिंघासन पर सुशोभित करके पहले अपने नमस्कार किया फिर सब सिक्खों और साहिबजादो को भी ऐसा करने को कहा| अब यह मेरा रूप हैं| मेरे और इनमे कोई भेद नहीं है| गुरु जी का वचन मानकर सारी संगत ने माथा टेका|
गुरु अमरदास साहिब के कार्य
गुरु अमरदास साहिब जी के कुछ विशेष कार्य निम्न हैं:
* गुरु अमरदास जी ने अपने से पहले दो गुरुओं के उपदेशों और संगीतों को लोगों तक पहुंचाने का काम किया।
* “आनन्द साहिब” जिसे परमानन्द का गीत कहते हैं, का लेखन गुरु अमरदास जी ने ही किया था।
* उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान लंगरों के आयोजन को विशेष महत्व दिया।
* गुरु अमरदास जी ने जाति भेदभाव को खत्म करके अपने अनुयायियों के बीच सामाजिक सद्भावना के बीज बोए।
* साथ ही उन्होंने मंजी और पिरी जैसे धार्मिक कार्यों की शुरूआत की।
* महिलाओं और पुरुषों की शिक्षा व्यवस्था पर गुरु अमरदास जी ने विशेष जोर दिया था।
* गुरु अमरदास साहिब ने ही बादशाह अकबर से कहकर सिखों और हिंदुओं को उनपर लगने वाले इस्लामिक जज़िया कर से निजात दिलवाई थी।
गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का विरोध किया और विधवाओं के पुनर्विवाह करवाने का समर्थन भी किया। कई लोग तो यह भी मानते हैं कि गुरु जी सती प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले पहले समाज सुधारक थे। छुआछूत को समाप्त करने के लिए गुरु अमरदास जी ने 'सांझी बावली' का निर्माण भी कराया था जहां किसी भी धर्म या जाति के लोग जाकर इसके जल को प्रयोग कर सकते थे
रचना
अमरदास के कुछ पद गुरु ग्रंथ साहब में संग्रहीत हैं। इनकी एक प्रसिद्ध रचना 'आनंद' है, जो उत्सवों में गाई जाती है। इन्हीं के आदेश पर चौथे गुरु रामदास ने अमृतसर के निकट 'संतोषसर' नाम का तालाब खुदवाया था, जो अब गुरु अमरदास के नाम पर अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध है।
गुरू अमरदास साहिब जी ने गोइन्दवाल साहिब में बाउली का निर्माण किया जिसमें 84 सीढियां थी एवं सिख इतिहास में पहली बार गोइन्दवाल साहिब को सिख श्रद्धालू केन्द्र बनाया। उन्होने गुरू नानक साहिब एवं गुरू अंगद साहिब जी के शबदों को सुरक्षित रूप में संरक्षित किया। उन्होने 869 शबदों की रचना की। उनकी बाणी में आनन्द साहिब जैसी रचना भी है। गुरू अरजन देव साहिब ने इन सभी शबदों को गुरू ग्रन्थ साहिब में अंकित किया।
गुरु अमरदास जी जोती-जोत समाना
श्री गुरू अमरदास जी ने परम ज्योति में विलीन होने से पहले अपने परिवार के सभी सदस्यों को तथा संगत को एकत्रित किया और कुछ विशेष उपदेश दिये। इन उपदेशों को उनके पड़पौते सुन्दर जी ने राग रामकली में सदु के शीर्षक से एक रचना द्वारा बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है। श्री सुन्दर जी, श्री आनन्द जी के सुपुत्र तथा बाबा मोहर जी के पौते थे। यह बाणी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में सँकलित है।
गुरू जी ने अपने प्रवचनों में कहाः मेरे "देहान्त" के बाद किसी का भी वियोग में रोना बिल्कुल उचित नहीं होगा क्योंकि मुझे ऐसे रोने वाल व्यक्ति अच्छे नहीं लगते। मैं परम पिता परमेश्वर की दिव्य ज्योति में विलीन होने जा रहा हूं। अतः आपको मेरे लिए एक स्नेही होने के नाते प्रसन्नता होनी चाहिए।
गुरू जी ने कहाः सँसार को सभी ने त्यागना ही है, ऐसी प्रथा प्रभु ने बनाई है। कोई भी यहाँ स्थाई नहीं रह सकता, ऐसा प्रकृति का अटल नियम है। अतः हमें उस प्रभु के नियमों को समझना चाहिए और सदैव इस मानव जन्म को सफल करने के प्रयत्नों में वयस्त रहना चाहिए ताकि यह मनुष्य जीवन व्यर्थ न चला जाए।
गुरू जी ने कहाः मेरी अँत्येष्टि क्रिया के समय किसी भी प्रचलित कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। मेरे लिए केवल प्रभु चरणों में प्रार्थना करना और समस्त संगत मिलकर हरि कीर्तन करना और सुनना। कथा केवल प्रभु मिलन की ही की जाए। इस कार्य के लिए भी संगत में से कोई गुरूमति ज्ञान का व्यक्ति चुन लेना, तात्पर्य यह है कि अन्य मति का प्रभाव नहीं होना चाहिए। केवल और केवल हरिनाम की ही स्तुति होनी चाहिए। आज्ञा देकर आप जी एक सफेद चादर तान कर लेट गए और शरीर त्याग दिया। आप एक सितम्बर 1574 को दिव्य ज्योति में विलीन हो गये।
सतिगुरि भाणै आपणै बहि परवारू सदाइआ ।।
मत मै पिछै कोई रोवसी सो मै मूलि न भाइआ ।।