Wednesday, 21 March 2018

स्वामी विवेकानंद - SWAMI VIVEKANANDA

स्वामी विवेकानंद 







स्वामी विवेकानंद के बारे में कुछ खास बातें जाने और समझे की कैसे स्वामी विवेकानंद के जीवन के बारे में पढ़  कर और उनकी  बतायी  गयी  शिक्षाओं पर चल कर आप सफलता प्राप्त कर सकते है |

एक युवा संस्यासी जिसने भारत की संस्कृति की खुशबु  को पुरे विश्व में बिखेर दिया चलिए पहले हम उनके बारे में थोड़ा जान लेते है | 










स्वामी विवेकानंद की जीवनी 

स्वामी विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेंद्र नाथ दत्त था उनका जन्म  12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था | स्वामी विवेकानंद अपने  गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के मुख्य शिष्ये थे उन्होंने उनकी प्रेरणा से भारत की संस्कृति का परचम पुरे विश्व में लहराया | उन्होंने अमेरिका में शिकागो के अंदर 1893 में आयोजित विश्व धर्म  महासभा में भारत की और से प्रतिनिधित्व किया था और वहां एक विश्व प्रसिद भाषण दिया था

स्वामी विवेकानंद को एक संत और युवाओं के प्रेरणास्रोत के रूप में जाना जाता है और इनके जन्मदिन 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस् के रूप में मनाया जाता है | स्वामी विवेकानंद युवाओ के लिए एक बहुत बड़े  प्रेरणा स्रोत है | 



स्वामी विवेकानंद जी का बचपन 

स्वामी विवेकानंद का जन्म नरेंद्र नाथ दत्त के नाम से 12 जनवरी 1863 को मकर सक्रांति के समय उनके पैतृक घर कलकत्ता  के गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट में हुआ, जो ब्रिटिशकालीन भारत की राजधानी  थी | 

स्वामी विवेकानंद 9 भाई बहन थे और उनके पिताजी विश्वनाथ दत्ता कलकत्ता हाई कोर्ट में वकील थे नरेंद्र के दादा दुर्गाचरण दत्ता संस्कृत और पारसी के विद्वान थे जिन्होंने 25 साल की उम्र में अपना घर त्याग एक संस्यासी का जीवन स्वीकार कर लिया था| 

नरेंद्र बचपन से ही अध्यात्म में बहुत रूचि लेते थे वह हमेशा शिव , राम और सीता के स्वरुप के सामने ध्यान लगा कर बैठ जाते थे| 





स्वामी विवेकानंद शिक्षा 
सन 1871 में आठ साल की उम्र में नरेंद्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान  में दाखिला लिया जहाँ वे स्कूल गए | 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया | 1879 में कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीज़न अंक प्राप्त किये | 

वे विभिन विषयो में जैसे शास्त्र , धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञानं, कला और साहित्य के उत्सुक पाठक थे | हिन्दू धर्मग्रंथो में भी उनकी बेहद रूचि थी जैसे वेद,उपनिषद, भगवत गीता , रामायण, महाभारत,और पुराण | नरेंद्र भारतीय पारम्परिक संगीत में निपुण थे, और हमेशा शरीरिक योग,खेल और सभी गतिविधियों में सहभागी होते थे | 

नरेंद्र ने पश्चिम तर्क , पश्चिम जीवन और यूरोपियन इतिहास की भी पढाई जनरल अंसेबलि इंस्टिट्यूट से कर रखी थी | 1881 में उन्होंने ललित कला की परीक्षा पास की और 1884 में कला स्रातक की डिग्री पूरी की |  


रामकृष्ण के संग 
नरेंद्र ने अपने जीवन में स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिलने से पहले बहुत गुरुओं के पास जा कर उनसे ईश्वर को दिखाने की मांग राखी |  मगर उन्हें हर जगह निराशा ही हाथ आयी वह धर्म ग्रंथो के आधार पर ईश्वर के प्रचारकों से सवाल पूछा करते थे लेकिन जिस ईश्वर को देखने की बात ग्रंथो में कही गयी थी उस ईश्वर को दिखाने की शक्ति 
किसी भी प्रचारक में नहीं थी| 

नरेंद्र की मुलाक़ात 1881 में पहली बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई , जिन्होंने उनके पिता की मृत्यु के पश्च्यात मुख्य रूप से नरेंद्र पर आध्यात्मिक प्रकाश डाला | 


1881 में नरेंद्र पहली बार रामकृष्ण से मिले, जिन्होंने नरेंद्र के पिता की मृत्यु पश्च्यात मुख्य रूप से नरेंद्र पर आध्यात्मिक प्रकाश डाला। रामकृष्ण से मिलते ही नरेंद्र ने उनसे सवाल किया  की क्या वह उसे ईश्वर दिखा सकते है, तभी श्रीरामकृष्ण परमहंस ने उन्हें उतर दिया की हाँ में तुम्हे ईश्वर दिखा सकता हू | तभी श्रीरामकृष्ण ने उन्हें ध्यान की अवस्था में बैठने को कहा और उनके सर पर हाथ रखा और ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन नरेंद्र को उनके भीतर करवाया| जिसके बाद नरेंद्र ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस को अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया | 

जब रामकृष्ण को सुरेन्द्र नाथ मित्र के घर अपना भाषण देने जाना था, तब उन्होंने नरेंद्र को अपने साथ ही रखा। परांजपे के अनुसार, ”उस मुलाकात में रामकृष्ण ने युवा नरेंद्र को कुछ गाने के लिए कहा था। और उनके गाने की कला से मोहित होकर उन्होंने नरेंद्र को अपने साथ दक्षिणेश्वर चलने कहा | 

ब्रह्म समाज के सदस्य के रूप में वे मूर्ति पूजा, बहुदेववाद और रामकृष्ण की काली देवी के पूजा के विरुद्ध थे। उन्होंने अद्वैत वेदांत के पूर्णतया समान समझना को इश्वर निंदा और पागलपंती समझते हुए अस्वीकार किया और उनका उपहास भी उड़ाया। नरेंद्र ने रामकृष्ण की परीक्षा भी ली |  जिन्होंने रामकृष्ण उस विवाद को धैर्यपूर्वक सहते हुए कहा, सभी दृष्टिकोणों से सत्य जानने का प्रयास करे।

नरेंद्र के पिता की 1884 में अचानक मृत्यु हो गयी और परिवार दिवालिया बन गया था |  साहूकार दिए हुए कर्जे को वापिस करने की मांग कर रहे थे और उनके रिश्तेदारों ने भी उनके पूर्वजो के घर से उनके अधिकारों को हटा दिया था। नरेंद्र अपने परिवार के लिए कुछ अच्छा करना चाहते थे|  वे अपने महाविद्यालय के सबसे गरीब विद्यार्थी बन चुके थे।

एक दिन नरेंद्र ने रामकृष्ण से उनके परिवार के आर्थिक भलाई के लिए काली माता से प्रार्थना करने कहा। और रामकृष्ण की सलाह से वे तिन बार मंदिर गये, लेकिन वे हर बार उन्हें जिसकी जरुरत है वो मांगने में असफल हुए और उन्होंने खुद को सच्चाई के मार्ग पर ले जाने और लोगो की भलाई करने की प्रार्थना की। 

1885 में, रामकृष्ण को गले का कैंसर हुआ और इस वजह से उन्हें कलकत्ता जाना पड़ा और बाद में कोस्सिपोरे गार्डन जाना पड़ा। नरेंद्र और उनके अन्य साथियों ने रामकृष्ण के अंतिम दिनों में उनकी सेवा की और साथ ही नरेंद्र की आध्यात्मिक शिक्षा भी शुरू थी। कोस्सिपोरे में नरेंद्र ने निर्विकल्प समाधी का अनुभव लिया।

नरेंद्र और उनके अन्य शिष्यों ने रामकृष्ण से भगवा पोशाक लिया तपस्वी के समान उनकी आज्ञा का पालन करते रहे। रामकृष्ण ने अपने अंतिम दिनों में उन्हें सिखाया की मनुष्य की सेवा करना ही भगवान की सबसे बड़ी पूजा है। रामकृष्ण ने नरेंद्र को अपने मठवासियो का ध्यान रखने कहा, और कहा की वे नरेंद्र को एक गुरु की तरह देखना चाहते है। और रामकृष्ण 16 अगस्त 1886 को कोस्सिपोरे में सुबह के समय भगवान को प्राप्त हुए।



स्वामी विवेकानन्द का विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में दिया गया भाषण

स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...

अमेरिका के बहनो और भाइयो,

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।


अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।


    
स्वामी विवेकानंद मृत्यु
स्वामी विवेकानंद के शिष्यों के अनुसार उनके जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला उन्होंने प्रात: 3 बजे उठ कर ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली | बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता  पर उनका अंतिम संस्कार किया गया | इसी गंगा तट के दूसरी और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अंतिम संस्कार हुआ था 

स्वामी विवेकानंद ने अपनी भविष्यवाणी को सही साबित किया की वे 40 साल से ज्यादा नहीं जियेंगे। 




 स्वामी विवेकानंद के 30 सर्वश्रेष्ठ विचार 

1. उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाये.

2. उठो मेरे शेरो, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो, तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो, तुम तत्व नहीं हो, ना ही शरीर हो, तत्व तुम्हारा सेवक है तुम तत्व के सेवक नहीं हो.

3. ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं. वो हमीं हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अन्धकार है!

4. जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएँ अपना जल समुद्र में मिला देती हैं, उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग, चाहे अच्छा हो या बुरा भगवान तक जाता है.

5. किसी की निंदा ना करें: अगर आप मदद के लिए हाथ बढ़ा सकते हैं, तो ज़रुर बढाएं. अगर नहीं बढ़ा सकते, तो अपने हाथ जोड़िये, अपने भाइयों को आशीर्वाद दीजिये, और उन्हें उनके मार्ग पे जाने दीजिये.

6. कभी मत सोचिये कि आत्मा के लिए कुछ असंभव है. ऐसा सोचना सबसे बड़ा विधर्म है. अगर कोई पाप है, तो वो यही है; ये कहना कि तुम निर्बल हो या अन्य निर्बल हैं.

7. अगर धन दूसरों की भलाई करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है, अन्यथा, ये सिर्फ बुराई का एक ढेर है, और इससे जितना जल्दी छुटकारा मिल जाये उतना बेहतर है.

8. एक शब्द में, यह आदर्श है कि तुम परमात्मा हो

9. उस व्यक्ति ने अमरत्व प्राप्त कर लिया है, जो किसी सांसारिक वस्तु से व्याकुल नहीं होता.

10. हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का धयान रखिये कि आप क्या सोचते हैं. शब्द गौण हैं. विचार रहते हैं, वे दूर तक यात्रा करते हैं.

11. जब तक आप खुद पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते.

12. सत्य को हज़ार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी हर एक सत्य ही होगा.

13. विश्व एक व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं.

14. इस दुनिया में सभी भेद-भाव किसी स्तर के हैं, ना कि प्रकार के, क्योंकि एकता ही सभी चीजों का रहस्य है.

15. हम जितना ज्यादा बाहर जायें और दूसरों का भला करें, हमारा ह्रदय उतना ही शुद्ध होगा, और परमात्मा उसमे बसेंगे

16. बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है

17. भगवान् की एक परम प्रिय के रूप में पूजा की जानी चाहिए, इस या अगले जीवन की सभी चीजों से बढ़कर.

18. यदि स्वयं में विश्वास करना और अधिक विस्तार से पढाया और अभ्यास कराया गया होता, तो मुझे यकीन है कि बुराइयों और दुःख का एक बहुत बड़ा हिस्सा गायब हो गया होता.

19. हमारा कर्तव्य है कि हम हर किसी को उसका उच्चतम आदर्श जीवन जीने के संघर्ष में प्रोत्साहन करें, और साथ ही साथ उस आदर्श को सत्य के जितना निकट हो सके लाने का प्रयास करें.

20. एक विचार लो. उस विचार को अपना जीवन बना लो – उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो. अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो. यही सफल होने का तरीका है.

21. जिस क्षण मैंने यह जान लिया कि भगवान हर एक मानव शरीर रुपी मंदिर में विराजमान हैं, जिस क्षण मैं हर व्यक्ति के सामने श्रद्धा से खड़ा हो गया और उसके भीतर भगवान को देखने लगा – उसी क्षण मैं बन्धनों से मुक्त हूँ, हर वो चीज जो बांधती है नष्ट हो गयी, और मैं स्वतंत्र हूँ.

22. वेदान्त कोई पाप नहीं जानता, वो केवल त्रुटी जानता है. और वेदान्त कहता है कि सबसे बड़ी त्रुटी यह कहना है कि तुम कमजोर हो, तुम पापी हो, एक तुच्छ प्राणी हो, और तुम्हारे पास कोई शक्ति नहीं है और तुम ये-वो नहीं कर सकते.

23.  जब कोई विचार अनन्य रूप से मस्तिष्क पर अधिकार कर लेता है तब वह वास्तविक भौतिक या मानसिक अवस्था में परिवर्तित हो जाता है.

24. भला हम भगवान को खोजने कहाँ जा सकते हैं अगर उसे अपने ह्रदय और हर एक जीवित प्राणी में नहीं देख सकते.

25. तुम्हे अन्दर से बाहर की तरफ विकसित होना है. कोई तुम्हे पढ़ा नहीं सकता, कोई तुम्हे आध्यात्मिक नहीं बना सकता. तुम्हारी आत्मा के आलावा कोई और गुरु नहीं है.

26. तुम फ़ुटबाल के जरिये स्वर्ग के ज्यादा निकट होगे बजाये गीता का अध्ययन करने के.

27. दिल और दिमाग के टकराव में दिल की सुनो.

28. किसी दिन, जब आपके सामने कोई समस्या ना आये – आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि आप गलत मार्ग पर चल रहे हैं.

29. स्वतंत्र होने का साहस करो. जहाँ तक तुम्हारे विचार जाते हैं वहां तक जाने का साहस करो, और उन्हें अपने जीवन में उतारने का साहस करो.

30. किसी चीज से डरो मत. तुम अद्भुत काम करोगे. यह निर्भयता ही है जो क्षण भर में परम आनंद लाती है.



गुरु नानक देव जी - GURU NANAK DEV JI




गुरु नानक देव जी ने विश्व भर में सांप्रदायिक एकता ,शांति ,सदभाव के ज्ञान को बढ़ावा दिया और सिख समुदाय की नीव राखी | 

















गुरु नानक देव जी का जन्म 

गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल 1469 कार्तिक पूर्णमासी में गांव तलवंडी ,शेइखुपुरा डिस्ट्रिक्ट में एक हिन्दू परिवार में हुआ जो की लाहौर पाकिस्तान से 65 किमी पश्चिम में स्थित है यह अब ननकाना साहिब,पाकिस्तान मे है| इनके पिता का नाम कालूराय मेहता और माता का नाम तृप्ता था | गुरु नानक देव जी सिख धर्म में पहले गुरु थे और उन्होंने सिख धर्म की स्थापना की थी | 



गुरु नानक देव जी का बचपन 


बचपन से ही गुरु नानक जी में आध्यात्मिक, विवेक और विचारशील जैसी कई खूबियां मौजूद थीं। उन्होंने सात साल की उम्र में ही हिन्दी और संस्कृत सीख ली थी। 16 साल की उम्र तक आते आते वह अपने आस-पास के राज्य में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे और जानकार बन चुके थे। इस्लाम, ईसाई धर्म और यहूदी धर्म के शास्त्रों के बारे में भी नानक जी को जानकारी थी।





गुरु नानक साहिब की शिक्षाएं

नानक देव जी की दी हुई शिक्षाएं गुरुग्रंथ साहिब में मौजूद हैं। गुरु नानक साहिब का मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति के समीप भगवान का निवास होता है इसलिए हमें धर्म, जाति, लिंग, राज्य के आधार पर एक दूसरे से भेदभाव नहीं करना चाहिए। उन्होंने बताया कि सेवा-अर्पण, कीर्तन, सत्संग और एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही सिख धर्म की बुनियादी धारणाएं हैं।



गुरु नानक देव जी के मिशन की कहानी


गुरु नानक जी नें अपने मिशन की शुरुवात मरदाना के साथ मिल के किया। अपने इस सन्देश के साथ साथ उन्होंने कमज़ोर लोगों के मदद के लिए ज़ोरदार प्रचार किया। इसके साथ उन्होंने जाती भेद, मूर्ति पूजा और छद्म धार्मिक विश्वासों के खिलाफ प्रचार किया।

उन्होंने अपने सिद्धांतो और नियमों के प्रचार के लिए अपने घर तक को छोड़ दिया और एक सन्यासी के रूप में रहने लगे। उन्होंने हिन्दू और मुस्लमान दोनों धर्मों के विचारों को सम्मिलित करके एक नए धर्म की स्थापना की जो बाद में सिख धर्म के नाम से जाना गया।

भारत में अपने ज्ञान के प्रसार के लिए कई हिन्दू और मुश्लिम धर्म की जगहों का भ्रमण किया।

एक बार वे गंगा तट पर खड़े थे और उन्होंने देखा की कुछ व्यक्ति पानी के अन्दर खड़े हो कर सूर्य की ओर पूर्व दिशा में देखकर पानी डाल रहें हैं उनके स्वर्ग में पूर्वजों के शांति के लिए। गुरु नानक जी भी पानी और वे भी अपने दोनों हाथों से पानी डालने लगे पर अपने राज्य पूर्व में पंजाब की ओर खड़े हो कर। जब यह देख लोगों नें उनकी गलती के बारे में बताया और पुछा ऐसा क्यों कर रहे थे तो उन्होंने उत्तर दिया – अगर गंगा माता का पानी स्वर्ग में आपके पूर्वजों तक पहुँच सकता है तो पंजाब में मेरे खेतों तक क्यों नहीं पहुँच सकता क्योंकि पंजाब तो स्वर्ग से पास है।


जब गुरु नानक जी 12 वर्ष के थे उनके पिता ने उन्हें 20 रूपए दिए और अपना एक व्यापर शुरू करने के लिए कहा ताकि वे व्यापर के विषय में कुछ जान सकें। पर गुरु नानक जी नें उस 20 रूपये से गरीब और संत व्यक्तियों के लिए खाना खिलने में खर्च कर दिया। जब उनके पिता नें उनसे पुछा – तुम्हारे व्यापर का क्या हुआ? तो उन्होंने उत्तर दिया – मैंने उन पैसों का सच्चा व्यापर किया।

जिस जगह पर गुरु नानक जी नें उन गरीब और संत व्यक्तियों को भोजन खिलाया था वहां सच्चा सौदा नाम का गुरुद्वारा बनाया गया है।




मक्का-मदीना में गुरु नानक देव जी का चमत्कार

गुरु नानक देव जी ने अपने जीवनकाल में कई जगह की यात्राएं कीं। एक बार नानक देव जी मक्का नगर में पहुंच गए। उनके साथ कुछ मुस्लिम भी थे। जब वह मक्का पहुंचे तो सूरज अस्त हो रहा था। सभी यात्री काफी थक चुके थे। मक्का में मुस्लिमों का प्रसिद्ध पूज्य स्थान काबा है। गुरु जी रात के समय थकान होने पर काबा की तरफ विराज गए।

काबा की तरफ पैर देखकर जिओन ने गुस्से में गुरु जी से कहा कि तू कौन काफिर है जो खुदा के घर की तरफ पैर करके सोया हुआ है? इस पर नानक देव जी ने बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा, मैं यहां पूरे दिन के सफर से थककर लेटा हूं, मुझे नहीं मालूम की खुदा का घर किधर है तू हमारे पैर पकड़कर उधर कर दे जिस तरफ खुदा का घर नहीं है।

गुरु जी की यह बात सुनकर जिओन को गुस्सा आ गया और उसने उनके चरणों को घसीटकर दूसरी ओर कर दिया। इसके बाद जब उसने चरणों को छोड़कर देखा तो उसे काबा भी उसी तरफ ही नजर आने लगा। इस तरह उसने जब फिर से चरणों को दूसरी तरफ किया तो फिर काबा उसी और घूमते हुए नजर आया। जिओन ने यह बात हाजी और मुसलमानों को बताई।

इस चमत्कार को सुनकर वहां काफी संख्या में लोग इकट्ठा हो गए। इसे देखकर सभी लोग दंग रह गए और गुरु नानक जी के चरणों पर गिर पड़े। उन सभी ने नानक देव जी से माफी मांगी। जब वह वहां से चलने की तैयारी करने लगे तो काबा के पीरों ने गुरु नानक देव जी से विनती करके उनकी एक खड़ाव निशानी के रूप में अपने पास रख ली।

जब इस घटना के बारे में काबा के मुख्य मौलवी इमाम रुकनदीन को जानकारी हुई तो वह गुरुदेव से मिलने आया और वह उनसे आध्यात्मिक प्रश्न पूछने लगा। वह नानक देव जी से कहने लगा कि मुझे जानकारी मिली है कि आप मुस्लिम नहीं हैं। पूछने लगा कि यहां आप किसलिए आए हैं। गुरुदेव ने कहा कि मैं आप सभी के दर्शनों के लिए यहां आया हूं।

इस पर रुकनदीन पूछने लगा कि हिन्दू अच्छा है कि मुसलमान, इस पर गुरु जी ने कहा कि जन्म और जाति से कोई बुरा नहीं होता। वही लोग अच्छे हैं जो ‘शुभ आचरण’ के स्वामी हैं। गुरुदेव जी ने कहा कि पैगम्बर उसे कहते हैं जो खुदा का पैगाम मनुष्य तक पहुंचाए। रसूल या नबी खुदा का पैगाम लाए थे।






कुरीतियों का विरोध

इसी तरह जब गुरु नानक जी विवाह के बाद समाज में फैली जात-पात, ऊंच-नीच की कुरीतियां दूर करने की ठानी तो वह जनता के बीच निकल पड़े। सबसे पहले गुरु नानक ने दक्षिण-पश्चिमी पंजाब का भ्रमण किया। यात्रा करते हुए वह सैदपुर गांव में पहुंचे तो वहां वह लालू नामक बढ़ई के घर में रुक गए।


आर्थिक रूप से गरीब लालू के घर रुकने की बात पूरे गांव में फैल गई। उसी गांव में ऊंची जाति का एक धनवान व्यक्ति भागो भी रहता था। उसने साधु-संतों के लिए एक भव्य भोज का आयोजन कर रखा था। उसने नानक को भोज के लिए बुलाया लेकिन उन्होंने वहां जाने से इनकार कर दिया।

भागो ने नानक देव जी से अपने घर पर भोज में नहीं आने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं ऊंच-नीच में भेदभाव नहीं करता। लालो मेहनत से कमाता है तुम गरीबों, असहायों को सताकर पैसा कमाते हो।

नानक जी ने एक हाथ से लालो की सूखी रोटी और दूसरे हाथ से भागो का पकवान निचोड़ा तो लालो की रोटी से दूध निकला, वहीं भागो की रोटी से खून निकला। यह देखकर सभी भौचक्के रह गए।इसके बाद वह यात्रा करते हुए असम पहुंचे, यहां एक ऊंची जाति का व्यक्ति खाना बना रहा था। नानक जी उसके चौके में चले गए।

यह देख वह व्यक्ति उन पर गुस्सा हो गया और चौके के भ्रष्ट होने की बात कही। यह सुनकर नानकदेव जी ने कहा कि आपका चौका तो पहले से भ्रष्ट है क्योंकि आपके अंदर जो नीची जातियां बसती हैं, आप उसे कैसे पवित्र करोगे। यह सुनकर वह बहुत शर्मिंदा हुआ।




मृत्यु

जीवन के अंतिम दिनों में इनकी ख्याति बहुत बढ़ गई और इनके विचारों में भी परिवर्तन हुआ। स्वयं विरक्त होकर ये अपने परिवारवर्ग के साथ रहने लगे और दान पुण्य, भंडारा आदि करने लगे। उन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला उसमें बनवाई। इसी स्थान पर (22 सितंबर 1539 ईस्वी) को इनका परलोकवास हुआ।


मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए।


गुरु नानक देव जी के 30 अनमोल सुविचार

1. भगवान पर वही विश्वास कर सकता है जिसे खुद पर विश्वास हो

2. यह दुनिया सपने में रचे हुए एक ड्रामे के समान है

3. भगवान उन्हें ही मिलते है जो प्रेम से भरे हुए है

4. सिर्फ वही शब्द बोलना चाहिए जो शब्द हमे सम्मान दिलाते हो

5. बंधुओ ! हम मौत को बुरा नही कहते यदि हम जानते की मरा कैसे जाता है

6. ना मै बच्चा हु, ना एक युवक हु, ना पौराणिक हु और ना ही किसी जाति से हु

7. यह दुनिया कठिनाईयों से भरा है जिसे खुद पर भरोसा होता है वही विजेता कहलाता है

8. ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है हम सबका पिता है इसलिए हमे सबके साथ मिलजुलकर प्रेमपूर्वक रहना चाहिए

9. कभी भी किसी भी परिस्थिति में किसी का हक नही छिनना चाहिए

10. आप सबकी सदभावना ही मेरी सच्ची सामजिक प्रतिष्ठा है

11. जो लोग अपने घर में शांति से जीवन व्यतीत करते है उनका यमदूत भी कुछ नही कर पाते है

12. सच्चा धार्मिक वही है जो सभी लोगो का एक समान रूप से सबका सम्मान करते है

13. प्रभु को पाने के लिए प्रभु के गीत गाओ, प्रभु के नाम से सेवा करो और प्रभु के सेवको के सेवक बन जाओ

14. कोई भी राजा कितना भी धन से भरा क्यू न हो लेकिन उनकी तुलना उस चीटी से भी नही की जा सकती है जिसमे ईश्वर का प्रेम भरा हुआ हो

15. उसकी चमक से ही सम्पूर्ण जगत प्रकाशवान है

16. मेरा जन्म ही नही हुआ है तो भला मेरा जन्म या मृत्यु कैसे हो सकता है

17. भी भी बुरा कार्य करने की सोचे भी नही और न ही कभी किसी को सताए

18. ईश्वर एक है उसके रूप अनेक है

19. ईमानदारी से मेहनत करके ही अपना पेट पालना चाहिए

20. सभी एक समान है और सब ईश्वर की सन्तान है

21. जब भी किसी को मदद की आवश्यकता पड़े, हमे कभी भी पीछे नही हटना चाहिए

22. संसार को जीतने के लिए अपने कमियों और विकारो पर विजय पाना भी जरुरी है

23. अहंकार कभी भी मनुष्य को मनुष्य बनकर नही रहने देता है इसलिए कभी भी अहंकार या घमंड नही करना चाहिए

24. कभी भी उसे तर्क से नही समझा जा सकता है चाहे तर्क करने में अपने कई सारे जीवन लगा दे

25. वहम और भ्रम का हमे त्याग कर देना चाहिए

26. हमेसा दुसरे के मदद के लिए आगे रहो

27. धन को जेब तक ही स्थान देना चाहिये अपने हृदय में नही

28. तेरी हजारो आँखे है फिर भी एक आँख नही, तेरे हजारो रूप है फिर भी एक रूप नही

29. चिंता से दूर रहकर अपने कर्म करते रहना चाहिए

30. अपने मेहनत की कमाई से जरुरतमन्द की भलाई भी करनी चाहिए